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अभौतिक खाता

अभौतिक खाता
Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the अभौतिक खाता masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind. View all posts by admin

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Gayatri Pariwar

हम चाहे आशावादी हों या निराशावादी, यह सांसारिक जीवन अभौतिक खाता हमारे लिए दुःखपूर्ण अवश्य प्रतीत होता है। बच्चा जब से अपनी माँ के उदर में आता है उसे दुःख का अनुभव होने लगता है। मनुष्य अपने जीवन के शुरू से लेकर अन्त तक दुःख के अनेकों जागृत अभौतिक खाता स्वप्न देखा करता है। मनुष्य इन दुःखों से मुक्त होना चाहता है और इस सम्बन्ध में नाना प्रकार की कल्पनायें किया करता है, जो निम्न लिखित हैं-

1.इस लोक के बाहर परन्तु व्यक्त जगत के अन्दर ही किसी दूसरे लोक में।

2. इस लोक के भीतर ही परन्तु अतीत के क्षेत्र में।

3. इस गोचर जगत से परे अभौतिक और अव्यक्त क्षेत्र में।

4. इस लोक के भीतर अभौतिक खाता परन्तु भविष्य के गर्भ में।

1. यही कारण है कि कुछ लोग इस संसार को दुःखमय समझ कर एक स्वर्ग की कल्पना करते हैं जो हमारे व्यक्त जगत के भीतर किसी अन्य लोक में होता है। उस स्वर्ग अभौतिक खाता में हम उन्हीं सुखों की अधिकता देखते हैं, जिनका यहाँ अभाव होता है। उस स्वर्ग में हमें वही आनन्द प्राप्त होता है, जो इन साँसारिक दुःखों के अभाव में प्राप्त होता है। स्वर्ग के प्राणी हमें अजर और अमर दिखाई पड़ते हैं। वहाँ खाने पीने के लिए बहुत सुन्दर स्वादिष्ट पदार्थ-अमृतादि मिलते हैं। स्वर्ग का सुख इन भौतिक दुःखों का अभाव ही है।

अभौतिक खाता

खाता शब्द के निम्नलिखित अर्थ हो सकते हैं:

    - इन खातों में ग्राहक अपने अतिरिक्त धन के कुछ हिस्से को अलग रखने के साथ-साथ थोड़ा ब्याज (मॉनेटरी रिटर्न) भी कमा सकते हैं। - डीमैट खाता, जिसमें शेयर एवं प्रतिभूतियाँ इलेक्ट्रानिक रूप में रखी जातीं है। - दो प्रविष्टियों वाली (डबल इंट्री) बुककीपिंग की भारतीय पद्धति है। - मुख्य बही (पुस्तक) को कहते हैं जिसमें पैसे के लेन-देन का हिसाब रखा जाता है।

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भारतीय लोक संस्कृति Indian Folk Culture

Bhartiya Lok Sanskriti

भारतीय लोक संस्कृति Bhartiya Lok Sanskriti बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद अभौतिक खाता की प्राचीन विरासत शामिल हैं। पिछली पाँच सहस्राब्दियों से अधिक समय से भारत के रीति-रिवाज़, भाषाएँ, प्रथाएँ और परम्पराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर सम्बंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण देती हैं।

हिन्दी, इंग्लिश और उर्दू अभौतिक खाता में खोलना के अर्थ देखिए

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आज वसंत पंचमी है। आज ही के दिन सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का एक सौ बीसवां जन्मदिन भी पड़ता है। हिंदी पट्टी के अधिकतर साहित्यिक और शिक्षण संस्थानों में वह रस्मी तौर से मनाया जाएगा। क्या वजह है कि हम हिंदीवाले निराला, महादेवी या प्रेमचंद के नाम पर कई पुरस्कारों की घोषणा और तामझाम भरे समारोह करने के बावजूद अगली पीढ़ी को अपनी भाषा के इतिहास और उसमें इन मनीषियों के योगदान को राजनीतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि में समझ-समझा नहीं सके हैं? सच तो यह है कि हमारे अकादमिक संस्थान और शोधार्थी आज न सत्साहित्य की परख कर पाते हैं, न उससे प्रभावित होते हैं। अचरज नहीं कि निराला का साहित्य व हिंदी कविता में क्रांतिकारी बदलाव लाने में उनका केंद्रीय महत्व (डॉ. रामविलास शर्मा के गहन-गंभीर विमर्श के बावजूद) आज भारतीय साहित्य के औसत पाठक-छात्र के लिए अजाना ही बना अभौतिक खाता हुआ है। कुकुरमुत्ता, चतुरी चमार, बिल्लेसुर बकरिहा सरीखी रचनाएं देने वाले इस लेखक को लेकर हिंदी का साहित्यिक प्रतिष्ठान जब पाता है अभौतिक खाता कि उनकी कृतियां तो भारतीय इतिहास के ऐसे गरिष्ठ टुकड़े हैं, जिनकी राजनीति व समाज पर समसामयिक असर की व्याख्या जोखिम भरी हो सकती है, तो वह उनकी एक जड़ मूर्ति बना अखंड पाठ शुरू करा देता है।

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