मुद्रा संकट के उदाहरण

Reason of Sri Lanka Crisis : श्रीलंका की इस दुर्दशा के लिए चीन कितना जिम्मेदार, 5 बिंदुओं में जानिए आर्थिक संकट के कारण
Sri Lanka Crisis आखिर श्रीलंका की इस आर्थिक दुर्दशा के लिए चीन कितना जिम्मेदार है। चीन की कर्ज नीति इसके लिए कितना दोषी है। दक्षिण एशिया में चीन ने जिन मुल्कों को अपने कर्ज जाल में फंसाया उसकी सबकी यही गति हो रही है।
नई दिल्ली, जेएनएन। Sri Lanka Crisis Reason: आजादी के बाद श्रीलंका अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। देश की आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह से चौपट हो गई है। जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी कर पाने में सरकार असफल हो गई है। पेट्रोल-डीजल से लेकर दूध और दूसरी खाद्य सामग्रियां इतनी महंगी हो गई हैं कि लोग खरीद नहीं पा रहे हैं। कभी पर्यटन के लिए दुनिया में मशहूर यह आइलैंड आर्थिक तौर पर तबाह हो चुका है। हालात इतने बुरे हैं कि आजादी के बाद एक बार फिर श्रीलंका गृह युद्ध के मुहाने पर खड़ा हो गया है। ऐसे में यह जानना उपयोगी हो गया है कि आखिर श्रीलंका के इस हालात के लिए कौन जिम्मेदार है। इसके लिए सत्ता पक्ष कितना दोषी है। श्रीलंका के आर्थिक संकट के पांच बड़े कारण क्या हैं। इन सब मामलों में विशेषज्ञों की क्या राय है।
राष्ट्रपति के सरकारी आवास में घुसकर प्रदर्शन
देश के विभिन्न हिस्सों में उग्र प्रदर्शन चल रहा है। प्रदर्शनकारी (Sri Lanka protests) राष्ट्रपति के सरकारी आवास में घुसकर प्रदर्शन कर रहे हैं। श्रीलंका की जनता इसके लिए राजशाही को जिम्मेदार ठहरा रही है। इस बीच श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे (President Gotabaya Rajapakse) ने शनिवार को इस्तीफे की घोषणा कर दी है। वह 13 जुलाई को इस्तीफा देंगे। हफ्तों तक गुस्सा उबलने के बाद आखिरकार फट पड़ा, विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गए और सरकार की नींव हिला दी। दो करोड़ बीस लाख की आबादी वाला श्रीलंका वित्तीय और राजनीतिक संकट (Sri Lanka financial and political crisis) से जूझ रहा है। साल 1948 में स्वतंत्रता मिलने के बाद से इस वक्त सबसे खराब आर्थिक स्थिति का सामना कर रहे इस देश में महंगाई के कारण बुनियादी चीजों की कीमते आसमान छू रही हैं।
1- विदेश मामलों के जानकार प्रो हर्ष वी पंत का कहना है कि श्रीलंका के इस हालात (Sri Lanka Crisis) के लिए कहीं न कहीं चीन का निकट होना भी बड़ा कारण है। उन्होंने कहा कि इस बात को नकारा नहीं जा सकता है। चीन की नजदीकी श्रीलंका पर भारी पड़ी है। चीन की रणनीति ऐसी है कि जिस देश में उसने अपने निवेश बढ़ाए हैं, वहां राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता तेजी से बढ़ी है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान और श्रीलंका इसके ज्वलंत उदाहरण है। उन्होंने जोर देकर कहा कि हमारा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है। प्रो पंत ने कहा कि श्रीलंका ने चीन के साथ जाने की रणनीतिक भूल की है।
2- प्रो पंत का कहना है कि श्रीलंका में यह संकट एक दिन का नतीजा नहीं है। यह कई वर्षों से पनप रहा था। इसकी एक वजह केंद्रीय सरकार का गलत प्रबंधन भी है। पिछले एक दशक के दौरान श्रीलंकाई सरकारों ने सार्वजनिक सेवाओं के लिए विदेशों से बड़ी रकम कर्ज के रूप में ली। उन्होंने कहा कि बढ़ते कर्ज के अलावा कई अन्य कारणों ने देश की अर्थव्यवस्था पर चोट की। उन्होंने कहा कि इसके लिए प्राकृतिक आपदाओं और मानव निर्मित तबाही भी शामिल है। वर्ष 2018 में श्रीलंका में राजनीतिक संकट से स्थितियां और बदतर हो गईं। श्रीलंका में उपजे संवैधानिक संकट के चलते देश की अर्थव्यवस्था को उबरने का मौका नहीं मिला।
3- प्रो पंत ने कहा कि श्रीलंका की इस हालत के लिए पर्यटन उद्योग भी बड़ा कारण रहा है। दरअसल, अप्रैल, 2019 में कोलंबो के विभिन्न गिरिजाघरों में ईस्टर बम विस्फोटों की घटना में 253 लोग हताहत हुए थे। इस घटना के बाद देश में पर्यटकों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। विदेशी पर्यटक साल 2019 के बाद से ही श्रीलंका में जाने से कतराने लगे हैं। इसका असर उसके विदेशी मुद्रा भंडार पर पड़ा। बता दें कि श्रीलंका की सकल घरेलू आय में 10 फीसदी हिस्सा पर्यटन उद्योग का रहा है। ऐसे में श्रीलंका का पर्यटन उद्योग पूरी तरह से चौपट हो गया।
4- प्रो पंत ने कहा कि वर्ष 2019 में श्रीलंका में सत्ता में परिवर्तन हुआ। गोटाबाया राजपक्षे की सरकार ने अपने चुनावी अभियानों में निम्न कर दरों और किसानों के लिए व्यापक रियायतों का वादा किया था। इस अतार्किक और अविवेकपूर्ण वादों को पूरा करने में समस्या को और विकराल कर दिया। वर्ष 2020 में वैश्विक कोरोना महामारी ने इस समस्या को और बदतर कर दिया। इस महामारी ने देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ को तोड़ दिया। चाय, रबर, मसालों और कपड़ों के निर्यात को भारी नुकसान पहुंचा।
5- इसके अलावा वर्ष 2021 में सरकार ने सभी उर्वरक आयातों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया और श्रीलंका को रातों-रात सौ फीसद जैविक खेती वाला देश बनाने की घोषणा कर दी। रातों-रात जैविक खादों की ओर आगे बढ़ जाने के इस प्रयोग ने खाद्य उत्पादन को गंभीर रूप से प्रभावित किया। नतीजतन, श्रीलंका के राष्ट्रपति ने बढ़ती खाद्य कीमतों, मुद्रा का लगातार मूल्यह्रास और तेजी से घटते विदेशी मुद्रा भंडार पर नियंत्रण के लिए देश में एक आर्थिक आपातकाल की घोषणा कर दी। इस फैसले का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा।
भारत के भुगतान संतुलन की स्थिति को लेकर निश्चिंत होकर बैठ जाना सही नहीं होगा
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार अच्छा-ख़ासा है, लेकिन बीते कुछ सप्ताह से इसमें धीरे-धीरे गिरावट आती जा रही है. 9 अप्रैल को ख़त्म हुए हफ्ते में भारत के रिज़र्व बैंक के मुद्रा भंडार में 11 अरब अमेरिकी डॉलर की कमी आई और यह गिरकर 606 अरब डॉलर का रह गया. The post भारत के भुगतान संतुलन की स्थिति को लेकर निश्चिंत होकर बैठ जाना सही नहीं होगा appeared first on The Wire - Hindi.
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार अच्छा-ख़ासा है, लेकिन बीते कुछ सप्ताह से इसमें धीरे-धीरे गिरावट आती जा रही है. 9 अप्रैल को ख़त्म हुए हफ्ते में भारत के रिज़र्व बैंक के मुद्रा भंडार में 11 अरब अमेरिकी डॉलर की कमी आई और यह गिरकर 606 अरब डॉलर का रह गया.
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
कोरोना महामारी के बाद वैश्विक उत्पादन के धीरे-धीरे सामान्य होने की कोशिशों को बढ़ रही खाद्य और ऊर्जा मुद्रास्फीति का तगड़ा झटका लगा है. खाद्य और ऊर्जा मुद्रास्फीति को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की प्रमुख ने विश्व अर्थव्यवस्था के लिए स्पष्ट और साक्षात खतरा करार दिया है.
यूक्रेन संघर्ष से हुए नुकसान का पूरा आकलन किया जाना अभी बाकी है. सच यह है कि भारत समेत ज्यादातर अर्थव्यवस्थाएं संघर्ष के समाधान से ऊर्जा और खाद्य कीमतों में नरमी आने की उम्मीद के आसरे बैठी हैं.
सरकारों में ईंधन की बढ़ी हुई कीमतों का पूरा बोझ उपभोक्ताओं पर लादने को स्थगित करने की प्रवृत्ति होती है. यह एक प्रेशर कुकर को पूरी आंच पर मुद्रा संकट के उदाहरण ज्यादा समय तक रखे रहने जैसा है. दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका की छोटी अर्थव्यवस्थाएं पहले ही विदेशी मुद्रा संकट के मुहाने पर पहुंच चुकी हैं, क्योंकि इनमें से ज्यादातर ऊर्जा और खाद्य की शुद्ध आयातक है.
खुशकिस्मती से भारत का विदेशी मुद्रा भंडार अच्छा-खासा है, लेकिन पिछले लगातार चार हफ्ते से इसमें धीरे-धीरे गिरावट आती जा रही है. 9 अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह में भारत के रिजर्व बैंक के मुद्रा भंडार में 11 अरब अमेरिकी डॉलर की कमी आई और यह गिरकर 606 अरब डॉलर का रह गया.
यूक्रेन युद्ध के वास्तविक प्रभाव सामने आने से पहले ही पांच महीने में इसमें 35 अरब डॉलर की गिरावट आई थी. भारत का विदेशी क्षेत्र फिलहाल स्थिर नजर आ सकता है, लेकिन यह मानकर नहीं बैठ जाना चाहिए कि यह संकटों से अछूता रहेगा.
पहली बात, कई अर्थशास्त्री वर्तमान वित्त वर्ष में भुगतान संतुलन के नकारात्मक रहने का अनुमान लगा रहे हैं. हाल के वर्षों में भारत का चालू खाते का घाटा 1-1.5 फीसदी के आसपास (मोटे तौर पर 40 अरब अमेरिकी डॉलर) रहा है, जिसकी पर्याप्त से अधिक भरपाई कहीं ज्यादा विदेशी पूंजी प्रवाह से हो गई.
दमदार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और स्टॉक मार्केट में सकारात्मक विदेशी संस्थागत निवेशकों के पोर्टफोलियो निवेश का इसमें हाथ रहा. भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता चला गया. लेकिन इस वित्तीय वर्ष में समीकरण बदल गया है.
विदेशी निवेशक अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्डों में सुरक्षित शरणस्थली तलाश रहे हैं. अमेरिकी फेडरल रिजर्व अैर ओईसीडी देशों के अन्य केंद्रीय बैंकों द्वारा अपनी आसान पूंजी की नीति को धीरे-धीरे वापस लेने से स्थिति और गंभीर हो गई है.
याद कीजिए, लगभग शून्य ब्याज दरों पर यह आसान पूंजी 2020-21 में भारत के टेक (तकनीक) और ग्रीन एनर्जी (हरित ऊर्जा) क्षेत्र की और बड़े पैमाने पर मुखातिब थी, जो विदेशी मुद्रा भंडार में बड़ी वृद्धि कर रहा था. इन सुहाने दिनों का अंत हो गया है.
अगर मौजूदा रुझानों के हिसाब से देखें, तो 2022-23 में पूंजी के आगमन में तेज गिरावट आएगी और व्यापार घाटा लगभग दोगुना हो जाएगा. ऊंची ऊर्जा और वस्तु (कमोडिटी) कीमतों के कारण भारत का आयात निर्यात की मुद्रा संकट के उदाहरण तुलना में ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है, जिससे व्यापार घाटा बढ़ रहा है.
मार्च में इसने 18.5 अरब अमेरिकी डॉलर के शीर्ष को छू लिया. वार्षिक तौर पर इसके 210 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाने की संभावना है.
अगर विदेश में रह रहे भारतीयों द्वारा हर साल लगभग 90 अरब डॉलर के रेमिटेंस को आकलन में शामिल करते हुए कहा जाए, तो चालू खाते का घाटा 120 अरब डॉलर के अभूतपूर्व शिखर तक या जीडीपी के 3.5-4 प्रतिशत तक पहुंच सकता है. भुगतान संतुलन के बने रहने के लिए भारत को इस पैमाने के पूंजी निवेश की दरकार होगी.
ऐसी स्थिति में जब ज्यादातर बड़े केंद्रीय बैंक आसान पूंजी को वापस ले रहे हैं, क्या अगले दस महीनों में ऐसा हो पाना मुमकिन है? ज्यादातर अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि भुगतान संतुलन नकारात्मक रहेगा.
उदाहरण के लिए, अगर अपने चालू खाते के घाटे को पाटने के लिए भारत को 120 अरब डॉलर की जरूरत होती है, लेकिन शुद्ध पूंजी निवेश के तौर पर इसे सिर्फ 50 अरब डॉलर की ही प्राप्ति होती है, तो बचे हुए 70 अरब डॉलर के भुगतान के लिए आरबीआई के खजाने से पैसे लेने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा.
ऐसा निश्चित लगता है कि अगले 11 महीनों में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार और नीचे आएगा. समस्या यह है कि ऐसा नकारात्मक माहौल बनने से पूंजी का पलायन और भी तेज हो सकता है.
मिसाल के लिए, भुगतान संतुलन के घाटे को पूरा करने के बाद भी आरबीआई के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार हो सकता है, लेकिन इसके बावजूद मुद्रा कमजोर हो सकती है और इसे समर्थन देने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार में हाथा डालना पड़ सकता है.
इन हालात में विश्वास दरक सकता है और जोखिम के दूसरे कारक खतरनाक नजर आने लग सकते सकते हैं. मिसाल के लिए, रेसिडुअल मैच्योरिटी आधार पर भारत का लघु आवधिक विदेशी कर्ज (जिनमें अगले 12 महीने में देय होनेवाली दीर्घावधिक कर्ज और एक साल से कम समय में देय छोटे मियाद वाले कर्ज की देनदारियां शामिल हैं) जून, 2021 के अंत में भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का 41.8 फीसदी था. यानी जून, 2022 तक 250 अरब डॉलर के छोटे मियाद वाले कर्ज का भुगतान किया जाना है.
इस बात की संभावना है कि जून, 2022 तक देय होने वाले कुछ लघु आावधिक कर्ज का, अगर उन्हें आगे बढ़ाया जाना संभव न हुआ, भुगतान विदेशी मुद्राभंडार से किया जाएगा. सामान्य तौर पर इस तरह के कई कर्जों को आगे बढ़ा दिया जाता है, लेकिन यूक्रेन संकट के बाद हालात को सामान्य कतई नहीं कहा जा सकता है.
आईएमएफ ने कहा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को ‘जटिल नीतिगत दुविधाओं’ का सामना करना पड़ सकता है, मुद्रा संकट के उदाहरण जो नीतियों का जटिल मकड़जाल खड़ी कर सकती हैं.
एक साफ दुविधा यह है कि अगर विदेशी मोर्चा दबाव में आता है और अनिवार्य आयातों में कमी करने की जरूरत आन पड़ती है, तो भी ऐसा करने की एक सीमा है, क्योंकि गरीब और कमजोर आबादी का ख्याल रखना जरूरी है. श्रीलंका, पेरू, नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि में हम यह देख रहे हैं.
कोई भी देश, खासकर जो मध्य आय वाले वर्ग में हैं, वे इससे पूरी तरह से सुरक्षित नहीं हैं. भारत की बुनियाद बेहतर नजर आती है, लेकिन भुगतान संतुलन की स्थिति पर नजर रखना जरूरी है, जिसमें हर 10-12 साल पर पीछे की ओर फिसलने की प्रवृत्ति होती है.
श्रीलंका के आर्थिक संकट से सबक
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ वरिष्ठ नौकरशाहों की बैठक में शामिल उच्च अधिकारियों ने देश में कई राज्यों द्वारा घोषित अति लोकलुभावन योजनाओं और ढेर सारी मुफ्त रियायतों पर चिंताएं जाहिर करते हुए कहा कि ऐसी योजनाएं और रियायतें आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं हैं। ये लोकलुभावन योजनाएं और रियायतें कई राज्यों को श्रीलंका की तरह आर्थिक मुश्किलों के रास्ते पर ले जा सकती हैं। गौरतलब है कि श्रीलंका में पिछले कुछ समय से लागू की गई लोकलुभावन योजनाओं, करों में भारी कटौती और बढ़ते कर्ज ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को सबसे बुरे दौर में पहुंचा दिया है। 2018 में वैट की दर 15 फीसदी से घटाकर 8 फीसदी की गई और विभिन्न वर्गों को दी गई अभूतपूर्व सुविधाओं व छूटों के कारण श्रीलंका दर्दनाक मंदी और चीन के ऋण जाल में फंस गया है। श्रीलंका में इस साल महंगाई दर एक दशक में अपने सर्वाधिक स्तर पर पहुंच चुकी है। आर्थिक तंगी के खिलाफ तेज होते विरोध प्रदर्शनों के बीच सरकार ने एक अप्रैल को श्रीलंका में आपातकाल लागू किया है। श्रीलंका की विपक्षी पार्टियों के द्वारा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव और राष्ट्रपति पर महाभियोग की तैयारी की घोषणा की गई है।
इतना ही नहीं, श्रीलंका के द्वारा मौजूदा विदेशी मुद्रा संकट से निपटने में मदद करने के लिए भारत से आर्थिक राहत पैकेज का आग्रह किया गया है। निःसंदेह विभिन्न लोकलुभावन योजनाओं और विभिन्न कर छूटों के कारण श्रीलंका आर्थिक बर्बादी का सामना कर रहा है, ऐसे में हमारे देश में उन विभिन्न राज्यों की सरकारों के द्वारा श्रीलंका के उदाहरण को सामने रखना होगा, जिन राज्यों ने लोकलुभावन योजनाओं और ढेर सारे प्रलोभन और छूटों का ढेर लगा दिया है और उससे उन प्रदेशों की अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त होते हुए दिखाई दे रही हैं। इतना ही नहीं, विभिन्न वर्गों के लिए मुफ्त यात्रा, मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी या फिर नाम मात्र की दर पर ढेर सारी सुविधाएं देने वाले विभिन्न राज्यों में लोगों की कार्यशीलता और उद्यमिता में भी कमी आई है। साथ ही ऐसे प्रदेश चुनौतीपूर्ण राजकोषीय घाटे की स्थिति में आ गए हैं और वहां बुनियादी ढांचा और विकास बहुत पीछे हो गया है। इन राज्यों में पंजाब, केरल, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ के नाम प्रमुख हैं। यदि हम देश में राजकोषीय घाटे के दलदल में पहुंच चुके विभिन्न राज्यों के द्वारा अपनाई गई मुफ्त सुविधाओं और लोकलुभावन योजनाओं के साथ केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के द्वारा अपनाई गई कल्याणकारी योजनाओं की तुलना करें तो कुछ बड़े अंतर उभरकर दिखाई देते हैं। मोदी सरकार ने जो कल्याणकारी योजनाएं लागू की हैं, उनसे लोगों का आर्थिक सशक्तिकरण हो रहा है।
परिणामस्वरूप गरीब मुद्रा संकट के उदाहरण वर्ग की कार्यक्षमता बढ़ने के साथ उनकी आमदनी में वृद्धि हो रही है। साथ ही मोदी सरकार ने विकास के लिए कठोर फैसलों की भी रणनीति अपनाई हुई है, उससे आर्थिक मुश्किलों का सामना करते हुए देश विकास के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि केंद्र सरकार ने कोविड-19 के बाद अब रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच बढ़ती महंगाई के मद्देनजर जहां आम आदमी के आर्थिक-सामाजिक कल्याण से संबंधित योजनाओं से लोगों की आर्थिक मुश्किलें कम करके उनके सशक्तिकरण का लक्ष्य रखा है, वहीं सरकार जीएसटी और आयकर में भारी रियायतों से दूर रही है। परिणामस्वरूप कोविड-19 के बाद लगातार टैक्स कलेक्शन बढ़ रहा है और देश आर्थिक पुनरुद्धार की डगर पर आगे बढ़ रहा है। इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि कोरोना काल की तरह यूक्रेन संकट से बढ़ती महंगाई के बीच एक बार फिर देश में केंद्र सरकार के द्वारा लागू आर्थिक-सामाजिक कल्याणकारी योजनाएं राहतदायी दिखाई दे रही हैं। विगत 26 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली कैबिनेट कमेटी ने यूक्रेन संकट की वजह से महंगाई को देखते हुए इस साल सितंबर 2022 तक 80 करोड़ आबादी को मुफ्त में राशन देने का फैसला किया है। गौरतलब है कि कोरोना महामारी शुरू होने के बाद मोदी सरकार ने अप्रैल 2020 में गरीबों को मुफ्त राशन देने के लिए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) की शुरुआत की थी। गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत लाभार्थी को उसके सामान्य कोटे के अलावा प्रति व्यक्ति पांच किलो मुफ्त राशन दिया जाता है। यह कोई छोटी बात नहीं है कि देश में जनधन, आधार और मोबाइल (जैम) के कारण आम आदमी डिजिटल दुनिया से जुड़ गया है।
एकीकृत बुनियादी डिजिटल ढांचा विकसित हुआ है, वह आम आदमी की आर्थिक-सामाजिक मुस्कुराहट का आधार बन गया है। देश में सरकार के द्वारा आम आदमी के आर्थिक कल्याण के लिए शुरू की गई जनधन योजना, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी), सार्वजनिक वितरण प्रणाली का डिजिटल होना विभिन्न योजनाओं का सही व सरल क्रियान्वयन का आधार बन गया है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को शुरू से आखिर तक डिजिटल करने का दोतरफा फायदा मिल रहा है। यदि हम केंद्र सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का मूल्यांकन करें, तो पाते हैं कि अधिकांश योजनाएं राजकोषीय घाटा बढ़ाने का कारण नहीं बन रही हैं। वे आर्थिक-सामाजिक सशक्तिकरण का बेमिसाल काम कर रही हैं। ऐसी योजनाओं में एलपीजी गैस सब्सिडी, शौचालय निर्माण, घरेलू गैस में सब्सिडी, ग्रामीण विद्युतीकरण, नल जल कनेक्शन, महामारी के दौरान निःशुल्क अनाज वितरण, निशुल्क कोरोना टीकाकरण, उज्ज्वला योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, पोषण कार्यक्रम, ई-रूपी, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, स्टैंड अप इंडिया और अटल पेंशन आदिश शामिल हैं। किसानों के लिए लागू कल्याणकारी योजनाओं ने कृषि क्षेत्र को नई मुस्कुराहट दी है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के मुताबिक अब तक 11.37 करोड़ से अधिक किसानों को 1.82 लाख करोड़ रुपए दिए जाने, फसल बीमा योजना में सुधार, कृषि बजट के पांच गुना किए जाने तथा किसानों को उनकी उपज का अच्छा मूल्य मिलने से करोड़ों किसान लाभान्वित हो रहे हैं।
जिस तरह कोरोना काल में आत्मनिर्भर भारत के तहत कल्याणकारी योजनाओं के कारण आम आदमी की मुश्किलें कम हुई और देश की अर्थव्यवस्था को गतिशीलता मिली, उसी प्रकार अब रूस-यूक्रेन युद्ध के संकट के कारण बढ़ती महंगाई से आम आदमी को राहत दिलाने में देश की कल्याणकारी योजनाएं अहम भूमिका निभाते हुए दिखाई दे रही हैं तथा देश को आत्मनिर्भरता की डगर पर आगे बढ़ाया जा रहा है। साथ ही सरकार उपयुक्त रणनीति के साथ राजस्व में भी वृद्धि कर रही है। देश में सरकारी तेल विपणन कंपनियां अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्यों के आधार पर पेट्रोल व डीजल की कीमतों में धीरे-धीरे वृद्धि की नीति पर चल रही हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि देश में आर्थिक और सामाजिक कल्याण की विशाल योजनाओं के लागू होने के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था एक बड़े आर्थिक पुनरुद्धार के मुहाने पर है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संग्रह मार्च 2022 में 1.42 लाख करोड़ रुपए रहा, जो रिकॉर्ड है। हम उम्मीद करें कि हमारे ऐसे राज्य जो लोकलुभावन योजनाओं व ढेर सारी रियायतों के प्रतीक बन गए हैं, वे सबसे बुरे आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे श्रीलंका से सबक लेंगे। हम उम्मीद करें कि केंद्र सरकार भी किसी नई लोकलुभावन व मुफ्त की सौगातों की योजनाओं पर ध्यान नहीं देगी। साथ ही केंद्र सरकार आर्थिक-सामाजिक कल्याण की योजनाओं के साथ-साथ विकास की वर्तमान रणनीति पर तेजी से आगे बढ़ेगी।
मुद्रा संकट के उदाहरण
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श्रीलंकाई संकट : एक प्रबंधन त्रासदी
कोलंबो, 5 अप्रैल (आईएएनएस)। कोलंबो का हाल इन दिनों एक अंधी गली जैसा हो गया है, लेकिन उम्मीद की एक किरण बची है, क्योंकि भारत और बहुपक्षीय वित्तीय संस्थान जैसे विश्वसनीय विकास भागीदार, द्वीपीय देश को मौजूदा आर्थिक संकट से उबारने में मदद करने की कोशिश कर रहे हैं।
श्रीलंकाई आर्थिक समस्याओं में विदेशी मुद्रा/आवश्यक वस्तुओं की कमी और बढ़ती मुद्रास्फीति शामिल हैं। इसके कारणों की जड़ें बहुत गहरी हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने हाल ही में उल्लेख किया है कि श्रीलंका को अस्थिर ऋण स्तरों के साथ-साथ लगातार राजकोषीय और भुगतान संतुलन की मुद्रा संकट के उदाहरण कमी के कारण स्पष्ट करदान समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
बढ़ती मुद्रास्फीति (लगभग 19 प्रतिशत) और बिगड़ती जीवन स्थितियों के बीच 1948 में अपनी स्वतंत्रता के बाद से श्रीलंका अपने सबसे खराब आर्थिक संकट का सामना कर रहा है।
भोजन की कमी के साथ-साथ 13 घंटे की रोजाना बिजली मुद्रा संकट के उदाहरण कटौती के साथ नागरिक भीषण गर्मी का सामना कर रहे हैं। संकट इतना गंभीर है कि सेंट्रल बैंक ऑफ श्रीलंका के गवर्नर अजित निवार्ड कैबराल ने भी पद छोड़ने की पेशकश की थी।
कुछ साल पहले तक श्रीलंका ने दक्षिण एशिया में उच्चतम प्रति व्यक्ति आय और मानव विकास सूचकांक प्रदर्शित किया था, लेकिन एकतरफा विकास मॉडल के कारण देश आर्थिक कगार पर धकेल दिया गया था।
कोलंबो ने बीजिंग के विकास मॉडल के आधार पर एक बुनियादी ढांचा केंद्रित विकास मॉडल अपनाया। उम्मीद है कि यह रोजगार पैदा करने और द्वीप राष्ट्र के लिए समृद्धि लाने में सक्षम होगा। इसने अपनी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए चीन की ओर रुख किया, जिसमें राजस्व सृजन की कोई गारंटी नहीं थी।
इस बीच, बुनियादी खाद्य उत्पादन जैसे महत्वपूर्ण आर्थिक क्षेत्रों की उपेक्षा की गई। यदि कोलंबो ने कम से कम नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश किया होता तो मौजूदा संकट को कुछ हद तक टाला जा सकता था।
अपने आर्थिक विकास को गति देने के अपने प्रयासों में श्रीलंका के राजनीतिक नेतृत्व ने अदूरदर्शी योजना और त्वरित सुधारों का सहारा लिया।
बुनियादी ढांचा आधारित विकास, ठेठ चीनी मॉडल, ज्यादातर इसलिए सफल रहा, क्योंकि चीन ने अपने विनिर्माण आधार को मजबूत किया और उसी समय निर्यात को बढ़ावा दिया। हालांकि, श्रीलंका का बुनियादी ढांचा विकास उधार पर आधारित था, जबकि इसकी विदेशी मुद्रा आय पर्यटन पर अत्यधिक निर्भर रही।
अनिवार्य रूप से देश अव्यवहार्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए चीन से उधार लेने और ऋण वापस करने में असमर्थ होने के दुष्चक्र में फंस गया है, जिसके परिणामस्वरूप या तो परियोजनाओं का नियंत्रण छोड़ दिया गया है या चीन को चुकाने के लिए अन्य ऋण ले रहे हैं। इसने केवल बीजिंग के रणनीतिक हित को पूरा किया है।
इसके अलावा, चीनी ऋण का उपयोग न केवल हंबनटोटा बंदरगाह और कोलंबो पोर्ट सिटी जैसी बड़े पैमाने की परियोजनाओं के लिए, बल्कि सड़कों और जल उपचार संयंत्रों के लिए भी किया गया था।
इसके अलावा, बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में चीनी निवेश के परिणामस्वरूप निर्माण सामग्री के आयात में भी वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए दक्षिणी एक्सप्रेसवे के निर्माण में चीनी निर्माण उपकरण और सामग्री का महत्वपूर्ण आयात हुआ था।
श्रीलंका में आर्थिक संकट और तेज हो गया, क्योंकि कोविड-19 महामारी ने अपने प्रमुख क्षेत्र, यानी पर्यटन को धीमा कर दिया, जिसने बदले में इसके विदेशी मुद्रा संकट को बढ़ा दिया।
इस निरंतर संकट का सामना करते हुए नई दिल्ली ने मानवीय आधार पर कोलंबो को दो आपातकालीन ऋण सहायता की पेशकश की है, जिसमें आवश्यक वस्तुओं की खरीद के लिए 1 अरब डॉलर शामिल हैं। अन्य 50 करोड़ क्रेडिट लाइन के तहत, भारत ने हाल ही में कोलंबो को 40,000 मीट्रिक टन डीजल सौंपा। पिछले 50 दिनों में भारत ने श्रीलंका को 200,000 मीट्रिक टन डीजल भेजा है।
भारत के लोगों को लगता है कि भारत सरकार को श्रीलंका के आर्थिक संकट से उबारने के लिए और अधिक प्रयास करने चाहिए। ये आकांक्षाएं लंबे समय से चले आ रहे सांस्कृतिक संबंधों और घनिष्ठ संबंधों के अनुरूप हैं।
जनवरी 2022 से, भारत अपने नागरिकों द्वारा अनुभव की जाने वाली कठिनाइयों को देखते हुए श्रीलंका की सहायता कर रहा है। इसने 2.4 अरब डॉलर की वित्तीय सहायता दी थी, जिसमें 40 करोड़ का क्रेडिट स्वैप और 51.5 करोड़ डॉलर से अधिक के एशियन क्लियरिंग यूनियन भुगतान को स्थगित करना शामिल था।
इस बीच, देश में सार्वजनिक विरोध तेज हो रहा है और सरकार ने आपातकाल लगाने का सहारा लिया है। श्रीलंका के सभी कैबिनेट मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है। राजनीतिक अनिश्चितता को टालने के प्रयास में भारत, श्रीलंका के लोगों को आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहा है।
यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि आर्थिक संकट के साथ-साथ श्रीलंका के ऋण पुनर्गठन या क्रेडिट लाइन के विस्तार की अपील के बावजूद चीन अब तक इसके लिए सहमत नहीं हुआ है। महसूस किया जा रहा है कि समय बर्बाद करने के बजाय बहुपक्षीय एजेंसियों को श्रीलंका की मदद करनी चाहिए और भारत को इसके लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने से पीछे नहीं हटना चाहिए। कोलंबो और संकट में घिरे श्रीलंकाई नागरिकों के लिए समय खत्म होता जा रहा है।
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दारोमदार रिजर्व बैंक पर
भारतीय रुपया एक बार फिर संकट में है और करीब गत एक माह में यह 68.7 रुपए प्रति डॉलर से 18 सितंबर तक 73.15 रुपए प्रति डॉलर तक पहुंच गया। उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस बाबत कमान संभालने के बाद 21 सितंबर तक रुपया 95 पैसे प्रति डॉलर सुधर कर 72.20 रुपए प्रति डॉलर तक पहुंच गया।
किसी भी अन्य केंद्रीय बैंक की तरह भारतीय रिजर्व बैंक भी विदेशी मुद्रा का संरक्षक और नियंत्रक माना जाता है। हालांकि वर्तमान में विदेशी मुद्रा विनिमय दर (रुपए का विदेशी मुद्रा के रूप में मूल्य) बाजार की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है, लेकिन रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप भी विनिमय दर निर्धारित करने में अहम भूमिका का निर्वहन करता है। उदाहरण के लिए बाजार में रुपयों में डॉलर का मूल्य (विनिमय दर) डॉलर की मांग और पूर्ति के आधार पर तय होता है। डॉलरों की पूर्ति वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात और विदेशी निवेश द्वारा होती है और डॉलरों की मांग वस्तुओं और सेवाओं के आयात और विदेशी निवेश के बहिर्गमन से तय होती है। ऐसे में यदि डॉलरों की मांग, पूर्ति से ज्यादा हो जाती है तो रुपए मुद्रा संकट के उदाहरण का अवमूल्यन होता है यानी प्रत्येक डॉलर के लिए ज्यादा रुपए देने पड़ते हैं।
आज विदेशी विनिमय बाजार में यही हो रहा है। कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों और भारी मात्रा में विदेशियों द्वारा डॉलरों का बहिर्गमन देश में डॉलरों की मांग बढ़ा रहा है और रुपए के अवमूल्यन का कारण बन रहा है। यदि रिजर्व बैंक अपने विदेशी मुद्रा भंडार से राशि निकालकर बाजार में डॉलरों की आपूर्ति बढ़ा दे तो स्वाभाविक रूप से रुपए का अवमूल्यन रुक सकता है, लेकिन कुछ दिन पूर्व तक रिजर्व बैंक इसके लिए तैयार नहीं था।
रिजर्व बैंक का यह कहना कि वह बाजार में हस्तक्षेप नहीं करेगा, कई कारणों से सही नहीं है। प्रधानमंत्री ने जब सत्ता के सूत्र संभाले थे, तब देश का विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 312.4 अरब डॉलर ही था, किंतु उसके बाद विदेशी मुद्रा भंडार 400 अरब डॉलर से भी अधिक पहुंच गया। इसमें विदेशी निवेश का बड़ा योगदान रहा, चाहे वह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश रहा हो या पोर्टफोलियो निवेश। दिलचस्प बात यह है कि जब विदेशी संस्थागत निवेशक भारत के प्रतिभूति बाजार में निवेश करते हैं, तब रिजर्व बैंक उस राशि से विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाता है।
विदेशी संस्थागत निवेशकों के आने के बाद भी रुपए का मुद्रा संकट के उदाहरण मूल्य नहीं बढ़ पाता, संभवत: इसके पीछे एक कारण यह है कि रुपए का मूल्य बढऩे से निर्यातकों को नुकसान होगा या आयात बढ़ जाएगा। लेकिन जब विदेशी संस्थागत निवेशक निवेश वापस ले जाते हैं तो रिजर्व बैंक का रुपए को बाजार शक्तियों के अधीन कहकर हस्तक्षेप करने से इनकार कर देना सैद्धांतिक तौर पर गलत है। यदि विदेशी संस्थागत निवेश के चलते डॉलरों की आपूर्ति से रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाता है तो विदेशी निवेशकों के बाहर जाने पर रिजर्व बैंक डॉलरों की आपूर्ति क्यों नहीं बढ़ाता?
यह बात सही है कि बढ़ती तेल कीमतों और उसके मुद्रा संकट के उदाहरण कारण बढ़ते भुगतान घाटे पर सरकार का नियंत्रण नहीं हो सकता। दूसरी ओर, अमरीकी प्रशासन द्वारा आयकर दरों में भारी कटौती, अमरीका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने और अन्य अंतरराष्ट्रीय कारणों से विदेशी संस्थागत निवेशकों के बहिर्गमन पर भी भारत का कोई नियंत्रण संभव नहीं है। लेकिन विदेशी संस्थागत निवेशकों को अनुशासित करते हुए उनके बहिर्गमन को रोकने के प्रयास किए जा सकते हैं।
गौरतलब है कि विदेशी संस्थागत निवेशकों को लाभ पर कोई कर नहीं देना पड़ता, इसलिए वे कभी भी निवेश को बाहर ले जाते हैं। लंबे समय से ऐसे निवेशकों पर निवेश की शर्त के रूप में लॉक-इन-पीरियड (न्यूनतम तय समयावधि) की मांग की जाती रही है। इसके अलावा कई मुल्कों में संस्थागत निवेशकों द्वारा धन बाहर ले जाने पर कर लगाया जाता है, जिसे 'टोबिन टैक्स' के नाम से जाना जाता है। इसके जरिए विदेशी संस्थागत निवेशकों के बहिर्गमन को हतोत्साहित मुद्रा संकट के उदाहरण किया जा सकता है।
वर्तमान समय में रुपए के गिरते मूल्य का मुख्य कारण विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा भारत में प्रतिभूतियों को बेच कर राशि बाहर ले जाना बताया जा रहा है। ऐसे में अल्पकाल में डॉलरों की मांग बढ़ी है और डॉलरों की अपर्याप्त सामान्य आपूर्ति के मद्देनजर रुपए का मूल्य गिर रहा है। बाजार में डॉलरों की थोड़ी-सी कमी भी रुपए के मूल्य में भारी अवमूल्यन लाती है। वर्ष 2018 के पहले 8 महीनों में हमारा विदेशी मुद्रा भंडार सिर्फ 11 अरब डॉलर कम हुआ है। ऐसे में इस अल्पकालिक समस्या से निपटने के लिए रिजर्व बैंक को बाजार में हस्तक्षेप करते हुए डॉलरों की आपूर्ति बढ़ानी चाहिए और रुपए का अवमूल्यन रोकना चाहिए।
यह समझना होगा कि रुपए का अवमूल्यन देश पर तरह-तरह के बोझ बढ़ाता है। बढ़ता विदेशी मुद्रा भंडार भविष्य के प्रति आश्वस्त तो करता है, लेकिन इस पर आमदनी लगभग शून्य है। जरूरी है कि रुपए का मूल्य स्थिर रखा जाए। सरकार की ओर से जारी बयान, कि भारतीय मुद्रा का प्रति डॉलर 68 से 70 रुपए का स्तर कायम रखना जरूरी है, को फलीभूत करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक को सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करना होगा ताकि रुपए में आगे और गिरावट न आए।